भाई दुलचा और गुरु साहिब
भाई दुलचा और गुरु साहिब
मुल्तान में गुरु तेग बहादुर जी का एक सिक्ख रहता था, जो कि बहुत अमीर व्यक्ति था। लोग उसे रूपा सेठ के नाम से पुकारते थे। जब उसको पता चला कि गुरु गोबिंद सिंह जी गुरगद्दी पर विराजमान हो रहे हैं और सिक्ख संगतें दूर-दूर से उपहार/भेंटे लेकर पहुंच रही हैं तो उसका भी मन हुआ कि वह भी गुरुजी को कोई बढिय़ा उपहार भेंट करेगा। उसने बहुत सारे सुन्दर हीरे मोतियों से जडि़त हार बनवाए और गुरु साहिब के लिए उनके माप के एक जोड़ी सुन्दर जड़ाऊ कड़े (कंगन) बनवाये।
पर किसी कारण से वह आनंदपुर साहिब ना जा सका तो उसने यह सारे उपहार क्षेत्र के मसंद भाई दुलचा के हाथ भिजवा दिये। कीमती उपहार देखकर भाई दुलचा का मन बेईमान हो गया और उसने जड़ाऊ कड़ों की जोड़ी को अपनी पगड़ी (दस्तार) में छिपा लिया और हीरे मोतियों के हार गुरु साहिब को भेंट कर दिए। पर गुरु साहिब को दुलचे की इस चालाकी का पता चल गया।
अगले दिन जब दरबार सजा और गुरु जी सिंहासन पर आकर बिराजे तो उन्होंने पूछा कि भाई दुलचा कहाँ है? वह तुरंत उनके सामने हाजिर हों। दुलचा झट से उठ कर गुरु के सामने हाजिर हो गया। गुरु जी ने कहा, ‘भाई दुलचा आप मेरे लिए क्या उपहार लेकर आए हो ?’ भाई दुलचा ने जवाब दिया, ‘महाराज, मैं तो जो कुछ भी उपहार लाया था, कल ही आपके समक्ष भेंट कर दिये थे।’ गुरु जी ने फिर पूछा, ‘भाई दुलचा अच्छी तरह से याद कर लीजिए, कोई चीज रह तो नहीं गई है, किसी प्रेमी ने कोई सौगात भेजी हो और आप भेंट करनी भूल गए हों।’
दुलचा गुरु साहिब की यह बात सुन तैश में आ गया और कहा, ‘आप मेरे साथ बच्चों जैसा व्यवहार कर रहे हैं। मैं पिछले पचास साल से गुरुघर की सेवा कर रहा हूं और मुझ पर शक कर भरे दरबार में मेरी इज्जत पर हाथ डाल रहे हैं।’ गुरुजी मुस्कुराए और कहा, ‘भाई दुलचा थोड़ा मेरे नजदीक आओ।’ जब भाई दुलचा उनके नजदीक गया तो गुरुजी ने जोर का हाथ मार दुलचे की पगड़ी दूर उछाल दी और कहा, ‘पहले तो मैंने कुछ नहीं कहा था, इज्जत पर हाथ तो अब डाला है।’सारी संगत हैरान रह गई कि गुरुजी भी गुस्सा कर रहे हैं ? पर उनकी हैरानी उस वक्त और बढ़ गई जब पगड़ी में से सोने के दो जड़ाऊ कंगन का जोड़ा उछल कर बाहर गिर गया और एक सिक्ख ने इन्हें उठाकर गुरु साहिब को दे दिया।
गुरु साहिब ने कहा, ‘भाई दुलचा अब बताओ, आपकी इज्जत में क्या छुपा हुआ था। जिस गुरु के प्यारे ने बड़े प्रेम से यह कड़े भेज थे, वह भला आदमी क्या सोचता होगा ?’ भेद खुल जाने पर भाई दुलचा बहुत शर्मिंदा हुआ और गुरु जी के पैरों में पगड़ी रख कर माफ करने के लिए मिन्नतें करने लगा, ‘महाराज मुझे बख्श दो, मैंने आपको एक छोटा बालक ही समझा था, आप तो सतगुरु अंतरयामी आप परमेश्वर हो। मुझ पर कृपा करो और मेरी खता को बख्श दीजिए।’
गुरुजी ने फरमाया, ‘भाई दुलचा गुरुघर में बख्शिश की कोई कमी नहीं है, जाओ तुम्हें बख्श दिया, पर आगे से ऐसी हेराफेरी ना करना।’ दुलचा बहुत खुश हुआ। उसका और सारी संगत को गुरु साहिब पर अथाह भरोसा व श्रद्धा और बढ़ गई।
शिक्षा – किसी की अमानत अपने पास नहीं रखनी चाहिए और हेराफेरी नहीं करनी चाहिए।
Waheguru Ji Ka Khalsa Waheguru Ji Ki Fateh
— Bhull Chukk Baksh Deni Ji —
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Source: DHANSIKHI
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