एक सच्चा सिक्ख और शूरवीर योद्धा बाबा बंदा सिंह जी बहादुर



बाबा बंदा सिंह जी बहादुर का जन्म माता सुलखणी देवी जी की कोख से 13 संवत 1727 विक्रमी (16 अक्टूबर, 1670 ई.) को राजौरी, जिला पुंछ, जम्मू कश्मीर में हुआ। बंदा सिंह जी के पिता जी का नाम रामदेव जी था। बाबा बंदा सिंह बहादुर जी का पहला नाम लछमण दास था। उन्हें घुड़सवारी, निशानेबाजी और शिकार खेलने का बहुत शौंक था। एक दिन उन्होंने एक हिरणी का शिकार किया। यह हिरणी गर्भवती थी और उसके पेट में दो बच्चे पल रहे थे। इन दोनों बच्चों और हिरणी ने इनकी आँखों के सामने तडफ़-तडफ़ कर प्राण त्याग दिये। इस घटना ने लछमण दास को झंकझोर कर रख दिया। उन्होंने भविष्य में कभी शिकार ना करने की कसम खाई। हिरणी की हत्या के पछतावे के कारण उनके मन में वैराग की भावना जाग उठी। वे साधु संतों की टोलियों के साथ मिलकर भारत के तीर्थस्थलों पर घूमने लगे। पर उनके मन को कहीं भी शांति प्राप्त नहीं हुई। उन्होंने पहले जानकी प्रसाद फिर साधु राम दास और अंत में औघड़ नाथ को अपना गुरु धारण किया। जानकी प्रसाद ने उनका नाम लछमण दास से बदलकर माधोदास रख दिया।
रिद्धिओं सिद्धिओं और तांत्रिक विद्या के माहिर योगी औघड़ नाम ने माधोदास को योग के गूढ़ साधन और जादू के अनेक भेद समझाए। अलग-अलग जगहों की यात्रा करने के उपरांत माधो दास ने नांदेड़ के नजदीक, गोदावरी नदी के किनारे, एक शांत और सुंदर स्थान पर अपना ठिकाना बना लिया। सितंबर, 1708 ई. में माधो दास की पहली मुलाकात श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ गोदावरी नदी के किनारे हुई। उसने अपनी रिद्धिओं-सिद्धिओं से गुरु जी को डराने की कोशिश की लेकिन वह असफल रहा और अंतत: गुरु जी के चरणों में गिर, शरण में आ गए। गुरु जी के साथ बिताए कुछ दिनों ने उसका जीवन पूरी तरह बदल दिया। वह अमृत ग्रहण कर माधो दास से गुरबक्श सिंह बन गए। गुरु जी ने उन्हें ‘बंदा बहादुरÓ का खिताब दिया और वे बंदा सिंह बहादुर के नाम से प्रसिद्ध हो गए। गुरु जी के आशिर्वाद से उन्होंने थोड़े ही दिनों में गुरमत ज्ञान और खालसा की जीवन शैली दृढ़ कर ली। गुरु जी के चरण स्पर्श प्राप्त करने के बाद उन्होंने जंत्र-मंत्र त्याग कर धुर की बाणी को अपने हृदय में बसा लिया। इस तरह वे पूर्ण गुरुसिक्ख और गुरुघर के पक्के सेवक बन गए।
गुरुजी ने उनकी इच्छा, दृढता और योग्यता को देखकर उन्हें खालसा पंथ का मुखिया बनाया। गुरु साहिब जी से उन्होंने मुगल हुकुमत की जल्मों की दास्तान सुनी कि किस प्रकार जहांगीर के हुक्म से श्री गुरु अरजन देव जी की शहादत हुई, औरंगजेब ने नौवें सतगुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी को चांदनी चौक, दिल्ली में शहीद किया, साहिबजादों (गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्र) को कैसे जुल्म ढहा कर शहीद किया गया। यह सुन उनका रोम-रोम फड़क उठा। उन्होंने श्री दशमेश पिता जी से पंजाब जाने की आज्ञा मांगी ताकि जुल्मी हकुमत के राज-तख्त को ढहा कर दोषियों को उनके कर्मों की सजा दी जा सके।
श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने बंदा सिंह बहादुर को आशिर्वाद दिया, पांच तीर अपने तरकश में से बख्शे और भाई बिनोद सिंह, भाई काहन सिंह, भाई बाज सिंह, भाई दया सिंह और भाई रण सिंह को पांच प्यारे घोषित करते हुए २० के लगभग अन्य शूरवीर उनके साथ भेजे। नांदेड़ से दिल्ली पहुंचने तक बाबा बंदा सिंह बहादुर जी के साथ केवल गिनती के सिंघ थे। रोहतक-सोनीपत के इलाके में दाखिल होने के बाद वे सहेरी-खंडा नाम के दो जुड़वां गावों की परिधी में रुके ताकि आगे की रणनीति तय की जा सके। यहीं से बाबा बंदा सिंह बहादुर ने सिक्खों को पत्र लिखे और गुरु साहिब जी की तरफ से जारी किए गये हुक्मनामे भेजे। संदेश मिलते ही सिक्खों ने पारंपरिक हथियारों से लैस हो सहेरी-खंडा पहुंचना शुरू कर दिया।
पंजाब पहुंचकर बाबा बंदा सिंह बहादुर ने सिक्खों को लामबद्ध कर मुगल हकुमत के विरुद्ध संघर्ष आरंभ कर दिया। जब बाबा बंदा सिंह बहादुर खालसा की लामबद्ध शक्ति को लेकर आगे बढ़े तो मुगल हकुमत को बड़े-बड़े स्तंभ हिल गए। मैदान-ए-जंग में मुगल फौजों को भारी विफलता और अपमान का सामना करना पड़ा। सिक्खों ने सोनीपत, कैथल, समाणा, सढौरा और मुखलिसगढ़ आदि जगहों पर मुगलों को हरा कर जीत प्राप्त की। 12 मई 1710 ई. ने मोहली के नजदीक चपड़चिड़ी के स्थान पर सूबेदार वजीर खान और दूसरी मुगल फौजों के साथ घमासान का युद्ध हुआ। सिक्खों की आंखों सामने साहिबजादों की शहीद का दिल का कंपकंपा देने वाला दृश्य घूम रहा था, वे जी जान से लड़े। इस लड़ाई में सूबेदार वजीर खां, उसका पुत्र और जंवाई भी मारे गए। 
14 मई को सिक्खों ने सरहिंद पर कब्जा कर लिया। उन्होंने पहली बार केशरी निशान साहिब फहरा कर स्वतंत्र खालसा राज की घोषणा कर दी। मुखलिसगढ़ के किले को लोहगढ़ का नाम देकर खालसा राज की राजधानी बनाया गया। श्री गुरु नानक देव जी-श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम से सिक्के जारी किए गए। जीत का यह सिलसिला लगातार जारी रहा। लाहौर से लेकर यमुना पार, सहारनपुर तक के इलाके पर बाबा बंदा सिंह जी बहादुर का कब्जा हो गया।

बाबा बंदा सिंह बहादुर जी सिर्फ जंगी योद्धा ही नहीं थे अपितु लोकसेवक और प्रजा के पालक भी थे। उन्होंने गरीब और मजलूम असहाय लोगों को अपनी हकुमत में उच्च पदों पर तैनात कर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के ऐलान ‘इन गरीब सिक्खन को देऊं पातशाही, याद करें ये हमरी गुरुयाई' को अमली जामा पहनाया। सबसे ज्यादा सुधार उन्होंने जमींदारा प्रबंध में किये और बिना जमीन वाले काश्तकारों को जमीनों के मालिकाना हक प्रदान किए। बाबा बंदा सिंह बहादुर की बढ़ती शक्ति को देखते हुए मुगल बादशाह बहादुर शाह स्वयं एक बड़ी फौज लेकर पंजाब में दाखिल हुआ। मौके की नजाकत को देखते हुए सिक्खों को पीछे हटना पड़ा। बहादुर शाह ने हुक्म जारी कर दिया कि जहां कहीं भी सिक्ख दिखाई दे उसे कत्ल कर दिया जाए। बंदा सिंह बहादुर जी और साथी सिंघ लोहगढ़ किले को छोड़ पहाड़ों की ओर निकल गए। उन्होंने पहाड़ों से भी अपनी लड़ाईयां जारी रखी। सबसे पहले राजा भीमचंद को मौत के घाट उतारा गया जो दशम पातशाह के समय से ही गुरुघर से बैर रखता था। इसके फलस्वरूप मंडी का राजा सिद्ध सैन और अन्य राजा नजराने लेकर पेश हो गए। चंबा के राजा उदय सिंह ने राजघराने की लड़की का विवाह बाबा जी के साथ करवाया जिसकी कोख से बाबा बंदा सिंह के पुत्र अजय सिंह का जन्म हुआ।
मुगल सम्राट बहादुर शाह की 18 फरवरी, 1712 को लाहौर में मौत हो गई। मौके का फायदा उठाते हुए बंदा सिंह बहादुर ने फिर से अपनी शक्ति को संगठित किया और कई इलाकों पर राज जमा लिया। उन्होंने मार्च 1715 में कलानौर और बटाला पर कब्जा कर लिया। बाबा बंदा सिंह बहादुर जी अन्य साथियों सहित गुरदास नंगल की कच्ची गढ़ी (मिट्टी से बना छोटा किला) में मुगल फौज के घेरे में आ गए। यह घेरा कई महीनों तक जारी रहा और रसद पानी खत्म हो गया। सिक्खों ने वृक्षों के पत्ते आदि खाकर भी गुजारा किया। 7 दिसंबर 1715 को शाही फौज ने गढ़ी पर कब्जा कर लिया। शाही फौज की इस जीत पर टिप्पणी करते हुए हाजी कामवर खां अपनी पुस्तक ‘तजकिरातु-सलातीन चुगतांईंआÓ में लिखता है कि ‘यह किसी अक्लमंदी या बहादुरी का नजीता नहीं था बल्कि खुदा की मेहरबानी थी। काफिर सिक्ख (बंदा सिंह बहादुर) और उसके साथी भूख के अधीन होने के लिए मजबूर कर दिए गए थे।’
बाबा बंदा सिंह बहादुर जी और लगभग 800 सिक्खों को कैदा बना कर पहले लाहौर लाया गया फिर अति शर्मनाक हालत में जुलुस की शक्ल में दिल्ली लाया गया। यह जुलूस 27 फरवरी 1716 को दिल्ली में दाखिल हुआ। बाबा बंदा सिंह बहादुर जी और उसके प्रमुख साथियों को त्रिपोलिया में इब्राहिम-उद-दीन मीर आतिश के हवाले कर दिया गया। बाकी को सरबराह खान के हवाले किया गया। बाबा बंदा सिंह बहादुर जी की पत्नी और उसके चार साल के पुत्र अजय सिंह को अलग से कैद में रखा गया। 5 मार्च, 1715 को सिक्ख कैदियों का कत्लेआम शुरू हो गया। प्रतिदिन 100 सिक्ख शहीद किये जाने लगे। सात दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा।
9 जून, 1716 को बाबा बंदा सिंह बहादुर जी और अन्य साथियों को जुलूस की शक्ल तक कुतुबमीनार के नजदीक ख्वाजा कुतबदीन बख्तियार काकी के रोजे के पास पहुंचाया गया। बाबा बंदा सिंह बहादुर को शहीद करने से पहले उनके पुत्र अजय सिंह को कत्ल करके उसका धड़कता हुआ दिल बाबा जी के मुंह में ठूंसा गया। फिर यातनाएं देने के लिए उन्हें गर्म लाल सुर्ख जंबूरों (प्लास जैसा एक उपकरण) से उनके शरीर का माँस नोचा गया। छुरे की मदद से उनकी आँखे निकाल दी गई, हाथ-पैर काट दिए गए और अंतत: उनका सिर कलम कर दिया गया। शहीद होते वक्त जिस निडरता और भयविहीनता का प्रदर्शन बाबा बंदा सिंह बहादुर जी ने किया, यह केवल एक महान योद्धा और गुरु का सिक्ख ही कर सकता है। बाबा बंदा सिंह बहादुर जी एक महान जरनैल, निडर यौद्धा और सच्चे श्रद्धालु सिक्ख के तौर पर हमें दिखाई देते हैं। बाबा बंदा सिंह बहादुर जी ने दुश्मन की फौजों के साथ स्वयं टक्कर लेकर सिद्ध कर दिया कि खालसा केवल अपनी रक्षा के लिए ही नहीं लड़ता अपितु जालिमों और अत्याचारियों को उनके घरों तक पहुंचकर खत्म करने की समर्था रखता है।
शिक्षा : हमें बाबा बंदा सिंह बहादुर की अनोखी शहादत से शिक्षा लेते हुए गुरमत जीवन धारण कर प्रभु की आज्ञा में जीने की कला सीखनी चाहिए।
Source: DHANSIKHI

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